आदमी ना-रसा सा लगता है फिर भी ज़ालिम ख़ुदा सा लगता है दोस्तो पारसा नहीं वो शख़्स हाँ मगर पारसा सा लगता है कैसी बस्ती में आ गए यारो जिस को देखो ख़ुदा सा लगता है इस चमन में नवा-ए-आज़ादी ये परिंदा नया सा लगता है ज़िंदगी कौन सा मक़ाम है ये ज़हर मुझ को दवा सा लगता है लोग जैसे चनाब की मौजें प्यार कच्चा घड़ा सा लगता है आज साहिल पे जिस की लाश मिली वो कोई नाख़ुदा सा लगता है आदमी पुर-ख़ुलूस है 'ज़ेबा' इक ज़रा बेवफ़ा सा लगता है