आए तिरे क़रीब मगर दूर हो गए हम दिल के हाथों किस लिए मजबूर हो गए दस्तूर क्या अजीब था पत्थर के शहर का आईने हसरतों के सभी चूर हो गए समझेगा कौन अहल-ए-जुनूँ के मुआमलात रुस्वा हुए तो और भी मशहूर हो गए यूँ फल लगे कि शाख़-ए-समर-बार झुक गई फूलों भरे दरख़्त भी मग़रूर हो गए चारागरों के पास नहीं था इलाज-ए-ग़म सीने में जितने ज़ख़्म थे नासूर हो गए दुनिया को ज़ेर करने का फ़न जानते न थे जो अपनी ख़्वाहिशात से मजबूर हो गए समझेगा 'राज' अपनी तबीअ'त को कोई क्या हँसते हुए हम और भी रंजूर हो गए