आह मिलते ही फिर जुदाई की वाह क्या ख़ूब आश्नाई की न गई तेरी सर-कशी ज़ालिम हम ने हर-चंद जब्बा-साई की दिल नहीं अपने इख़्तियार में आज क्या मगर तू ने आश्नाई की दर पे ऐ यार तेरे आ पहुँचे तपिश-ए-दिल ने रहनुमाई की क़ाबिल-ए-सज्दा तू ही है ऐ बुत सैर की हम ने सब ख़ुदाई की जो मुक़य्यद हैं तेरी उल्फ़त के आरज़ू कब उन्हें रिहाई की जी में 'बेदार' खप गई मेरे ख़ंदक़ उस पंजा-ए-हिनाई की