आज भी अब्र-ए-मसर्रत आंसुओं में ढल गया फिर भरी बरसात में दिल का नशेमन जल गया जुस्तजू-ए-शब बुझाती तो मियाँ कुछ ख़ैर थी रौशनी का कारवाँ चश्म-ए-सहर में खुल गया साहब-ए-मरहम तिरी जब से हुई चश्म-ए-करम एक ज़रा सा आबला नासूर बन कर फल गया क्या ख़बर थी झाला-बारी मेहरबाँ होगी अभी पेड़ समझा था यही तूफ़ान आ कर टल गया कुछ समझ आता नहीं तर्क-ए-वफ़ा कैसे करूँ आस्तीन-ए-आरज़ू में फिर संंपोला पल गया रू-ब-रू 'साहिल' है लेकिन अब भला क्या फ़ाएदा सैर-ए-तूफ़ाँ करते करते जिस्म सारा गल गया