आज की शाम ठहर जाओ ग़ज़ल होने तक इल्तिजा है कि न घर जाओ ग़ज़ल होने तक तुम गुल-ए-रा'ना हो ख़ुश-रंग हो ख़ुश-बख़्त भी हो ख़ुशबू बन बन के बिखर जाओ ग़ज़ल होने तक सोए एहसास की लहरों में मचा दो हलचल आँख से दिल में उतर जाओ ग़ज़ल होने तक फिर ख़ुदा जाने ये आईना रहे या न रहे आज मौक़ा है सँवर जाओ ग़ज़ल होने तक अपने हर ख़्वाब को काग़ज़ पे मुकम्मल कर लूँ मेरी आँखों में ठहर जाओ ग़ज़ल होने तक किस तरह तुम को 'सुरूर' आज क़लम-बंद करे मुझ को बतला के हुनर जाओ ग़ज़ल होने तक