आज नज़र-अंदाज़ हुए तो बात है क्या हैरानी की आयत जैसे लोग मिले और हम ने रु-गर्दानी की कितने रूप की धूप हमारे सीने पर लहराई थी हम ने चादर खींच ली ख़ुद पर हम ने तन-आसानी की क्या करते इक हुस्न-ए-यूसुफ़ और ज़ुलेख़ा क्या बनते हम ने दोनों लुत्फ़ उठाए हम ने क़िस्सा-ख़्वानी की दरियाओं से मिलते-जुलते लोग रहे हैं पहलू में फिर भी हम ने भर के रक्खी अपनी छागल पानी की पहले मैं ने हुक्म दिया था बस मुझ को महसूस करो बाद में उस को जिस्म बनाया जिस ने ना-फ़रमानी की