आख़िरी मंज़र अजब आँखों में है जैसे सदियों का सफ़र लम्हों में है लम्हा लम्हा साज़-ए-दिल ख़ामोश सा इक सदा बस गूँजती कानों में है ज़िंदगी उलझा हुआ इक सिलसिला फाँस इक चुभती हुई साँसों में है रब्त-ए-जाँ का जिस्म से टूटा हुआ छूटता दामन तिरा हाथों में है कुछ फ़साने याद कुछ भूले हुए ख़्वाब सी इक शक्ल भी आँखों में है