आँखों में चुभ रही है गुज़रती रुतों की धूप जल्वा दिखाए अब तो नए मौसमों की धूप शाम-ए-फ़िराक़ गुज़रे तो सूरज तुलूअ' हो दिल चाहता है फिर से वही क़ुर्बतों की धूप इस में तमाज़तें भी सही शिद्दतें तो हैं उल्फ़त की छाँव से है भली नफ़रतों की धूप मैं उस के वास्ते हूँ बहारों की चाँदनी उस का वजूद मेरे लिए सर्दियों की धूप महरूमी-ए-विसाल है 'नासिर' मुझे क़ुबूल इस पर मगर पड़े न कभी गर्दिशों की धूप