'आलम है बे-ख़ुदी का मय की दुकान पर हैं साक़ी पे हैं निगाहें होश आसमान पर हैं दिल अपनी ज़िद पे क़ाइम वो अपनी आन पर हैं जितनी मुसीबतें हैं सब मेरी जान पर हैं दुनिया बदल गई है वो हैं हमीं कि अब तक अपने मक़ाम पर हैं अपने मकान पर हैं ये सूरतें तुम्हारी ये नाज़ ये अदाएँ क़ुर्बान ऐ बुतो हम ख़ालिक़ की शान पर हैं शुक्र-ए-ख़ुदा कि उन के क़दमों पे सर है अपना इस वक़्त कुछ न पूछो हम आसमान पर हैं अब तक समझ रहे हैं दिल में मुझे मुसलमाँ क़ाइम हुनूज़ ये बुत अपने गुमान पर हैं उस्लूब-ए-नज़्म-ए-'अकबर' फ़ितरत से है क़रीं-तर अल्फ़ाज़ हैं महल पर मा'नी मकान पर हैं