आने अटक अटक के लगी साँस रात से अब है उमीद सिर्फ़ ख़ुदा ही की ज़ात से साक़ी हवा-ए-सर्द को तू सरसरी न जान कैफ़िय्यत उस की पूछ नबात-ए-नबात से अपना सनम वो क़हर है ऐ बरहमन कि गर देखे मनात को तो गिरा देवे लात से कल से तो इख़्तिलात में ताज़ा है इख़तिराअ' रुकने लगी हैं आप मिरी बात बात से पेश आइए ब-शफ़क़त-ओ-लुत्फ़ उस से शैख़ जी बिंत-उल-अनब को जानिए अपने नबात से हासिल किया जो हम ने क़दम-बोस-ए-पीर-ए-दैर आई सदा-ए-इश्क़ दर-ए-सोमनात से हैं वाजिब-उल-वजूद के अनवार इश्क़ में उस की सिफ़ात-ए-ज़ात नहीं मुम्किनात से अशआ'र-ए-तब्अ'-ज़ाद मिरी सुन के शोख़ वो कहने लगा कि फ़ाएदा इस मोहमलात से मुतलक़ मिला के आँख इधर देखते नहीं आते नज़र हो आज भी कम इल्तिफ़ात से 'इंशा' ने आ लगा ही लिया तुम को बात में ज़ालिम वो चूकता है कोई अपनी घात से