देखा पलट के जब भी तो फैला ग़ुबार था कुछ आँसुओं की धुँद थी उजड़ा दयार था यादों के आइने में हैं अब भी बसी हुई आँखें कि जिन में मुंजमिद इक इंतिज़ार था रिश्तों की डोर हाथ से छूटी थी इस लिए दामन जो बद-गुमानियों से तार तार था कैसी थी मय जो आँख से तू ने पिलाई थी मेरी रगों में आज तक उस का ख़ुमार था टूटा कोई सितारा था या ख़्वाब-ए-आरज़ू ताइर क़फ़स में रात बहुत बे-क़रार था धुँदला दिए थे जिस ने सभी आईने यहाँ मेरे ही घर से उट्ठा वो गर्द-ओ-ग़ुबार था