आने वाले दिनों को भी हम जी चुके अब यहाँ कोई मौसम अनोखा नहीं आओ अब अपने बिस्तर लपेटें चलो एक ऐसे नगर में जो देखा नहीं इश्तिहारों के बे-बर्ग सहरा में अब गुम-शुदा लज़्ज़तें ढूँढती है ज़बाँ ऐ ज़मीं तेरे दामन में वो फल भी है ज़ाइक़ा जिस का दुनिया ने चक्खा नहीं पत्तियाँ झड़ गईं फूल मुरझा गए कितना सुनसान है पेड़ एहसास का उस की शाख़ों पे जिस का बसेरा था कल वो परिंदा भी तो आज लौटा नहीं जिस को दुश्मन कहूँ कोई ऐसा नहीं अब तो जो भी है मेरा बही-ख़्वाह है ये जो हर साँस पीने पे मजबूर हूँ मैं ने ये ज़हर ख़ुद तो ख़रीदा नहीं अपने पुरखों का वारिस हूँ फिरता हूँ मैं दर-ब-दर अपनी झोली में डाले हुए सारे सिक्के जो टकसाल बाहर हुए सारे अल्फ़ाज़ वो जिन के मा'ना नहीं