बिछड़ के उस से जो निकले तो बे-नवा थे बहुत वो ला-शरीक न भी हो शरीक-ए-ला थे बहुत हुआ न कुछ भी जो हम से मुफ़ाहमत तो हुई हम अपने आप से अब तक ख़फ़ा-ख़फ़ा थे बहुत फ़ज़ा है सुस्त ग़म-ए-मर्ग हम-ख़यालाँ सख़्त हुजूम-ए-शहर में होने को हम-नवा थे बहुत कहीं जो सच की किरन थी तो आइने में थी मगर वो ख़ौफ़ कि चेहरे हवा हवा थे बहुत गुमाँ ग़लत था कि जो शख़्स भी है हम सा है वो हम ही थे कि हर इक शख़्स से जुदा थे बहुत ये किस ख़ता पे मिली बे-क़ियामियों की सज़ा कि पा-शिकस्ता सज़ा-याब बे-ख़ता थे बहुत कहाँ गया कि वो रखता है जान-ओ-दिल से 'अज़ीज़ ये इक मुग़ालता हम जिस में मुब्तला थे बहुत