आँख शाइ'र की हो पुर-नम तो ग़ज़ल होती है याद-ए-जानाँ का हो आलम तो ग़ज़ल होती है साँस छुपने लगे नश्तर की तरह सीने में दिल को तड़पाए शब-ए-ग़म तो ग़ज़ल होती है कभी छा जाए अंधेरा कभी चमके महताब ज़ुल्फ़ उस रुख़ पे हो बरहम तो ग़ज़ल होती है मेरी जानिब मिरे साक़ी की हो मख़मूर नज़र और हो कैफ़ का आलम तो ग़ज़ल होती है शब-ए-महताब हो जज़्बात हों और सेहन-ए-चमन हुस्न ऐसे में हो हमदम तो ग़ज़ल होती है यक-ब-यक कानों में आने लगे आवाज़-ए-सरोश ज़िंदगी छेड़ दे सरगम तो ग़ज़ल होती है रूह मसरूर हो एहसास के सन्नाटे में दामन-ए-गुल पे हो शबनम तो ग़ज़ल होती है देख कर चाक मिरे जैब-ओ-गरेबाँ 'शब्बीर' हँस पड़े हुस्न-ए-मुजस्सम तो ग़ज़ल होती है