ऐसा न मुझ को ख़्वाब-ए-परेशाँ दिखाई दे कश्ती हो जिस जगह वहीं तूफ़ाँ दिखाई दे यूँ बे-नक़ाब आरिज़-ए-जानाँ दिखाई दे हर ज़र्रा आफ़्ताब-ब-दामाँ दिखाई दे वो मस्त-ए-नाज़-ए-हुस्न जहाँ जल्वा-बार हो शाम-ए-बला भी सुब्ह-ए-बहाराँ दिखाई दे ख़ुद्दार हूँ वो इश्क़ मिरा इश्क़ ही नहीं जो मुब्तला-ए-मिन्नत-ए-दरबाँ दिखाई दे उस पारसा को ला के डुबो दे शराब में साक़ी जो मय-कदे में गुरेज़ाँ दिखाई दे मेरा जुनूँ नहीं है जो मौसम के फ़ैज़ से शर्मिंदा-ए-बहार-ए-गुलिस्ताँ दिखाई दे उस के जुनून-ए-इश्क़ का आलम न पूछिए हर फूल जिस को आरिज़-ए-जानाँ दिखाई दे 'शब्बीर' को यक़ीं है कि आए अगर वो शोख़ काँटों की सरज़मीं भी गुलिस्ताँ दिखाई दे