आँखें थकन से चूर हैं लर्ज़िश बदन में है ख़ुशबू बहार-ओ-रंग कहाँ अब चमन में है गिरता है सख़्तियों के सबब यूँ वो राहगीर क़ुव्वत न हौसला न जुनूँ जान-ओ-तन में है सहरा की धूप में जो झुलसता है उम्र-भर पूछो कि कितनी तिश्नगी उस के दहन में है मेरे लहू से प्यास बुझाएँगे कुछ अज़ीज़ इतनी मुख़ालिफ़त मिरी अपने वतन में है रक्खो मेरे जनाज़े से शिकवे ज़रा से दूर इतनी जगह लहद में न मेरे कफ़न में है करते क़ुबूल मौत ग़रीब-उल-वतन मगर किस जा वो लुत्फ़ पाते जो ख़ाक-ए-वतन में है 'मीसम' ये तल्ख़ लहजा ये शिकवे शिकायतें क्या है जो इतनी आजिज़ी तेरे सुख़न में है