आँखों में ख़ुबे जाए है तस्वीर लगे है अशआ'र से झलके है जवाँ 'मीर' लगे है सौ बार लिखा है उसे सौ बार पढ़ा है फिर भी वो कोई अजनबी तहरीर लगे है मुझ जैसा गुनहगार नवाज़ा गया कैसे मुझ को तो किसी और की तक़दीर लगे है आँखों में उतर आता है इक आइना चेहरा मुझ को वो मिरे ख़्वाब की ता'बीर लगे है इक उम्र ख़यालों में रखा जिस को बसाए कल पर्स से निकली है तो दिल-गीर लगे है उस शोख़-दहन के लब-ओ-लहजे का फ़ुसूँ है बर्छी कभी भाला जो कभी तीर लगे है 'ग़ालिब' की क़लम-रौ का ग़ज़ल नाम है 'ख़ुसरव' मुझ को तो सुख़न 'मीर' की जागीर लगे है