आँसूओं को न सज़ावार-ए-मलामत समझो

आँसूओं को न सज़ावार-ए-मलामत समझो
इन चराग़ों को शब-ए-ग़म की ज़रूरत समझो

कौन जाने किसे फिर घर की हो दहलीज़ नसीब
आज-कल घर से निकलने को भी हिजरत समझो

जज़्बा-ए-इश्क़ नहीं हर्फ़-ओ-बयाँ का मुहताज
मेरी ख़ामोशी को इज़हार-ए-मोहब्बत समझो

दास्ताँ फ़स्ल-ए-बहाराँ की सुनाने वालो
जेब-ओ-दामन पे लिखी है जो इबारत समझो

बे-हिसी संग-दिली ज़ुल्म बग़ावत नफ़रत
ऐसे हालात को आसार-ए-क़यामत समझो

अहल-ए-ज़र सुन नहीं सकते कभी आवाज़-ए-फ़ुग़ाँ
इन ख़ुदावंदों को महरूम-ए-समाअ'त समझो

राज़-ए-हस्ती से भी उठ जाएँगे सारे पर्दे
पहले इक ज़र्रा-ए-ख़ाकी की हक़ीक़त समझो

ज़िंदगी की ही अलामत है धड़कना दिल का
दर्द को फ़ितरत-ए-इंसाँ की अमानत समझो

अजनबी शहर की बेगाना फ़ज़ाओं में 'सिराज'
कोई पहचान ले तुम को तो ग़नीमत समझो


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