आप जैसों से वफ़ा कर के मिला कुछ भी नहीं ख़ैर ऐसी बात से मुझ को गिला कुछ भी नहीं तेरे जाते ही मिरे घर को उदासी खा गई अब यहाँ दीवार-ओ-दर के सिवा कुछ भी नहीं हम ख़यालों में तेरे रहते हैं जैसे क़ैद में कौन कहता है मोहब्बत की सज़ा कुछ भी नहीं मैं तो हिजरत के ख़यालों से भी डर जाता था और एक वो जिस को बिछड़ने पर हुआ कुछ भी नहीं आप मानें या न मानें आप की मर्ज़ी मगर ऐसा कहना तो ग़लत है कि ख़ुदा कुछ भी नहीं मुझ में से तुझ को घटाया तो पता है क्या हुआ मुझ में से तुझ को घटाया तो बचा कुछ भी नहीं उस के होने से अंधेरा छट सा जाता था 'विहान' वर्ना ऐसी चाँद रातों में रखा कुछ भी नहीं