आप की चश्म-ए-इनायत कभी ऐसी तो न थी और तग़ाफ़ुल पे नदामत कभी ऐसी तो न थी याद आता हूँ मैं क्यों तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ पर भी मेहरबाँ मुझ से मोहब्बत कभी ऐसी तो न थी आप के लुत्फ़-ओ-करम की मैं तमन्ना करता ग़म-ओ-आलाम से फ़ुर्सत कभी ऐसी तो न थी ज़हे क़िस्मत रसन-ओ-दार के लाएक़ ठहरा अपनी हम चश्मों में इज़्ज़त कभी ऐसी तो न थी तेरे आरिज़ का है ये अक्स कि आग़ाज़-ए-बहार अपने गुलशन की लताफ़त कभी ऐसी तो न थी अपनी बरबाद-ए-मोहब्बत पे तहय्युर कैसा उन से उम्मीद-ए-रिफ़ाक़त कभी ऐसी तो न थी अश्क क्यों ढलते नहीं आँखों से बरसों 'मंज़र' मेरे दामन को शिकायत कभी ऐसी तो न थी