जहान-ए-ख़ैर-ओ-शर से उठ के क्या जाने कहाँ जाते कोई जन्नत अगर होती तो फ़रज़ाने कहाँ जाते कशिश दश्त-ए-जुनूँ की ऐन फ़ितरत ही सही लेकिन दम-ए-अर्ज़-ए-तमन्ना तेरे दीवाने कहाँ जाते ये बज़्म-ए-मय नहीं है बल्कि इक आईना-ख़ाना है उसे तुम छोड़ कर ज़ुल्फ़ों को सुलझाने कहाँ जाते ख़लिश जब आरज़ू की मिट नहीं सकती तो ऐसे में सुकून-ए-क़ल्ब की ख़ातिर ये दीवाने कहाँ जाते निगाह-ए-मस्त से बे-ख़ुद किया हम को मगर सोचा हमारे हाथ से छुट कर ये पैमाने कहाँ जाते नहीं मालूम किस के संग-ए-दर पर है पड़ा 'मंज़र' जनाब-ए-शैख़ फ़रमाएँ कि समझाने कहाँ जाते