आस का आसमान समझा था क्यों तुम्हें मेहरबान समझा था दुश्मन-ए-क़ल्ब था वो ग़ारत-गर मैं मोहब्बत की जान समझा था तेरी अंगड़ाइयों के बालों को मैं धनक की कमान समझा था वो मिरी शायरी को जाने क्यों पत्थरों की ज़बान समझा था 'राज' मैं तो हर इक शिवाले को उस बदन की उठान समझा था