आशिक़ की जान जाती है इस बाँकपन को छोड़ ऐ बुत ख़ुदा के वास्ते अपने चलन को छोड़ बुलबुल न रहम आएगा सय्याद को कभी है जान अगर अज़ीज़ तो तू इस चमन को छोड़ उस का यही तरीक़ रहा आशिक़ों के साथ ऐ दिल बस अब शिकायत-ए-चर्ख़-ए-कुहन को छोड़ सहरा की सम्त पाँव बढ़े जाते हैं दिल आ वहशत पुकारती है कि हुब्बुलवतन को छोड़ बसने को चल तू दश्त-ए-ख़िज़ाँ-दीदा में 'शबाब' गुलज़ार में बहार-ए-गुल-ओ-नस्तरन को छोड़