अभी तक उन के वही सितम हैं जफ़ा की ख़ू भी नहीं गई है वो रंजिशें भी नहीं गई हैं वो गुफ़्तुगू भी नहीं गई है नशेमन अपना उठा न याँ से ख़िज़ाँ जो आई तो आई बुलबुल बहार रुख़्सत अभी हुई है गुलों की बू भी नहीं गई है गई जवानी तो जाए दिलबर मुझे है उल्फ़त हनूज़ बाक़ी वो इल्तिजा भी नहीं गई है वो जुस्तुजू भी नहीं गई है ये रश्क-ए-बुलबुल कि जान देने को तू अभी से तड़प रही है अभी तो है बू-ए-गुल चमन में वो कू-ब-कू भी नहीं गई है 'शबाब' बोसा लिया जो मैं ने तो क्या बिगड़ कर वो शोख़ बोला अदब ज़रा भी नहीं है तुझ को हया तो छू भी नहीं गई है