आशिक़ी जाँ-फ़ज़ा भी होती है और सब्र-आज़मा भी होती है रूह होती है कैफ़-परवर भी और दर्द-आश्ना भी होती है हुस्न को कर न दे ये शर्मिंदा इश्क़ से ये ख़ता भी होती है बन गई रस्म बादा-ख़्वारी भी ये नमाज़ अब क़ज़ा भी होती है जिस को कहते हैं नाला-ए-बरहम साज़ में वो सदा भी होती है क्या बता दो 'मजाज़' की दुनिया कुछ हक़ीक़त-नुमा भी होती है