हम ठहर पाए न का'बे में न बुत-ख़ाने में उम्र गुज़री दिल-ए-शोरीदा के बहलाने में आज तक हो न सके महरम-ए-असरार-ए-जुनूँ बरसें गुज़रीं हमें रहते हुए वीराने में अपने तो अपने रहे ग़ैर भी रो देते हैं ऐसी क्या बात है हमदम मिरे अफ़्साने में तंग है उन के लिए आरज़ू-ए-इशरत-ए-दह्र शादमाँ हैं जो तिरे ग़म के तरब-ख़ाने में जाँ-गुसिल ही सही 'आशुफ़्ता' ग़म-ए-दोस्त मगर जान-ए-अफ़्साना यही है मिरे अफ़्साने में