हुजूम-ए-ग़म में जीना किस क़दर सब्र आज़मा होता

हुजूम-ए-ग़म में जीना किस क़दर सब्र आज़मा होता
अगर दर्द-ए-मोहब्बत से ये दिल ना-आश्ना होता

मिरी लग़्ज़िश ने रंगीं कर दिया हर नक़्श-ए-हस्ती को
यहाँ हू का समाँ होता अगर मैं पारसा होता

तमन्ना ख़ुद-फ़रेबी आरज़ू है जान की दुश्मन
मसर्रत दिल को देना थी तो बस ग़म ही दिया होता

ये इंसान अपनी दुनिया को तबाही से बचा लेता
अगर फ़िक्र-ए-जज़ा होती अगर ख़ौफ़-ए-ख़ुदा होता

करें क्या हम भी हैं मजबूर दिल से वर्ना ऐ हमदम
तिरी हर बात सुन लेते अगर दिल दूसरा होता

ख़ुशा-क़िस्मत जुनून-ए-जुस्तुजू था साथ साथ अपनी
वगर्ना रहनुमा ने तो हमें भटका दिया होता

कहाँ था हौसला कैसे गुज़रती ज़िंदगी या-रब
अगर फ़ैज़-ए-मोहब्बत का न दिल को आसरा होता

बस इक ज़ौक़-ए-तमन्ना ने किया रुस्वा मुझे वर्ना
न तकलीफ़-ए-फ़ना होती न अरमान-ए-बक़ा होता

इलाज अपने किए का कुछ नहीं दुनिया में 'आशुफ़्ता'
न हम इज़हार-ए-ग़म करते न कोई ख़ुद-नुमा होता


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