आसमाँ भी पुकारता है मुझे आशियाँ भी लुभा रहा है मुझे अक्स आख़िर कहाँ गया मेरा आइना क्यूँ छुपा रहा है मुझे मुझ में सूरज उगा के चाहत का वो सवेरा सा कर गया है मुझे ग़म की बारिश से बन गई दरिया इक समुंदर बुला रहा है मुझे सुब्ह की सर्द सी फ़ज़ा थी मैं ग़म का सूरज तपा रहा है मुझे मेरे अंदर भँवर भी है कोई तुझ से मिल कर पता चला है मुझे मैं रिदा हूँ जो बेवफ़ाई की क्यूँ मुसलसल तू ओढ़ता है मुझे ख़ूबसूरत से गुल का पैकर हूँ अपने अंजाम का पता है मुझे एक ऐसी ग़ज़ल हूँ मैं 'सीमा' हर कोई गुनगुना रहा है मुझे