आसूदगी का दौर है फ़ाक़ा-कशी भी है सब कुछ है अपने पास मगर कुछ कमी भी है बरहम हुए कभी तो कभी मुस्कुरा दिए बस में तुम्हारे मौत भी है ज़िंदगी भी है तूफ़ान-ए-ग़म में तुम ने गले से लगा लिया हाँ मुझ को ऐसी पुर्सिश-ए-ग़म की ख़ुशी भी है रुक-रुक के मेरी सम्त बढ़ाती है हर क़दम शायद कि ज़िंदगी मुझे पहचानती भी है इस दौर-ए-बे-हयाई में कुछ बोलता नहीं उस शख़्स में जनाब शराफ़त अभी भी है मिलता है ऐसा वक़्त भी 'मंज़र' नसीब से मैं हूँ शब-ए-विसाल है इक अजनबी भी है