बढ़े ज़रा जो ये मौज-ए-वहशत तो हम भी कोई कमाल कर लें किसी को कोई जवाब दे दें किसी से कोई सवाल कर लें उस एक सोने से घर के ऐ दिल रखा ही क्या है अब उस गली में कि जाएँ करने को ज़ख़्म ताज़ा और अपनी आँखों को लाल कर लें मिला जो बन कर वो अजनबी सा कहा है दिल ने ये आह भर कर भुला दें सारी गुज़िश्ता बातें गए दिनों का मलाल कर लें यही है आँखों का बस तक़ाज़ा सजें दरीचे फिर उस गली के तमाशा होने को जाएँ फिर हम फिर अपना वैसा ही हाल कर लें हवा-ए-हिज्राँ रुके तो कर लें मुदावा अपनी उदासियों का गले लगा लें फिर उस को 'ख़ावर' फिर एक रिश्ता बहाल कर लें