आती जाती साँस कैसे तेरे ग़म से मन गई क्या बताएँ ज़िंदगी ख़ुद-रफ़्तगी क्यूँ बन गई बात भी सह लें किसी की अब कहाँ इतना दिमाग़ तुम से रूठे थे लड़ाई दूसरों से ठन गई काग़ज़ों से मैं तिरा उर्यां बदन ढकने लगा जो बचा रक्खी थी अब तक वो मता-ए-फ़न गई रेज़ा रेज़ा चाँद पलकों की चटानों पर मिला रात काले ग़म की ऐसे झाड़ कर दामन गई रोज़-ओ-शब की ये मसाफ़त जाने कब होगी तमाम फिर हवा ले कर हमारे जिस्म का ईंधन गई