तिरा ख़याल था लफ़्ज़ों में ढल गया कैसे दिलों में शम-ए-ग़ज़ल बन के जल गया कैसे वो आदमी जो मिरा दोस्त था ज़माने तक पता नहीं कि यकायक बदल गया कैसे बहुत ही तेज़ हवा शेर-ए-हादसात की थी मैं गिरते गिरते न जाने सँभल गया कैसे कहीं भी आग लगाने का वाक़िआ' न हुआ तो फिर हुज़ूर मकाँ मेरा जल गया कैसे ख़लिश से जिस की थी वाबस्ता याद मंज़िल की वो ख़ार पाँव से 'ख़ुसरव' निकल गया कैसे