आतिश-ए-बाग़ ऐसी भड़की है कि जलती है हवा कूचा-ए-गुल से धुआँ हो कर निकलती है हवा गिर्या-ए-उश्शाक़ से कीचड़ है ऐसे जा-ब-जा थाम कर दीवार-ओ-दर गलियों में चलती है हवा गुलशन-ए-आलम की नैरंगी से होता है यक़ीं फिर शगूफ़ा फूलता है फिर बदलती है हवा देखिए जा कर ज़रा कैफ़िय्यत-ए-जोश-ए-बहार झूमते हैं पेड़ गिर गिर कर सँभलती है हवा ना-रसाई देखना उड़ता है जब मेरा ग़ुबार यार के कोठे की कानिस से फिसलती है हवा गर्मियों में सैर गुलज़ारों की भाती है मुझे हर क़दम पर पंखिया फूलों की झलती है हवा 'बहर' पंखा हाथ से रख दो निहायत ज़ार हूँ मौज-ए-दरिया की तरह मुझ को कुचलती है हवा