आया था अपनी ज़ीस्त में इक ऐसा बाब भी था ख़्वाब अपने सामने ताबीर-ए-ख़्वाब भी आने से उस के फैल गई चार-सू महक जैसे कि खिल गए हों समन और गुलाब भी मैं क्या बताऊँ कितना हसीं लग रहा था वो हैरत से तक रहा था उसे माहताब भी सुन कर मिरा सवाल उसे चुप सी लग गई मुझ को ही सोचना पड़ा उस का जवाब भी किस तरह भूल जाऊँ मैं उस को जो मेरे पास ख़ुशबू भी अपनी छोड़ गया और किताब भी 'काशिफ़' रसाई उस तलक आसान है कहाँ कोह-ए-गिराँ है राह में और फिर चनाब भी