आज़ाद जहाँ से हो गए हैं ज़ेबाई में उस की खो गए हैं फिर रह न सके सबा के चलते फिर गुल की बास को गए हैं अब सिलसिला देखना नुमू का हम बाग़ में अश्क बो गए हैं आने वालों से क्या बताएँ थे कितने अज़ीज़ जो गए हैं चाहें भी तो बज़्म में न रो पाएँ तन्हाई में इतना रो गए हैं बस हम रहे निस्बतों में गड़ कर आज़ाद थे लोग सो गए हैं उस गुल के नफ़स कि थे नसीमी पत्तों से ग़ुबार धो गए हैं