इक कर्ब से वो नवाज़ रक्खे जग से मुझे बे-नियाज़ रक्खे आमोख़्ता-ए-जमाल है दिल दर-शक्ल नियाज़-ए-नाज़ रक्खे हर शख़्स की चश्म दीदनी थी हाथों से जब उस ने साज़ रक्खे पाँव के तले रहें शहाँ भी सूली मुझे सरफ़राज़ रक्खे हर सम्त मुकालिमात-ए-बाज़ार क्यों साथ कोई बयाज़ रक्खे क्या बाग़ कि हो सराब जिस में क्या हुस्न जो कुछ मजाज़ रक्खे ख़स थे पे क़दम में सर्व के थे सो कुछ तो सबा लिहाज़ रक्खे ख़ुशबू में सुख़न करे है वो गुल कैसे कोई उस का राज़ रक्खे