अब ऐसी ना-उमीदी भी नहीं है बहार आएगी फिर हम को यक़ीं है तग़य्युर को लगा करती हैं सदियाँ करिश्मा दो घड़ी का ये नहीं है न हो पाए न होंगे फ़ासले कम अज़ल से यूँही गर्दिश में ज़मीं है यही है रिश्ता-ए-तार-ए-नफ़स अब जो इक नश्तर सा दिल में जागुज़ीँ है वही रह रह के हम से पूछते हैं बयाँ जिस बात का आसाँ नहीं है न पूछो हम से मौसम की हक़ीक़त मिज़ाज-ए-यार की चीन-ए-जबीं है हम अब के ख़त्म समझे थे कहानी दिल-ए-पुर-अज़्म तुझ को आफ़रीं है चलो इक दिन 'सहर' उस बुत से मिल आएँ बहुत दिन से उसे देखा नहीं है