अब भी आज़ाद फ़ज़ाओं का न इम्काँ निकला बाब-ए-गुलशन जिसे समझे दर-ए-ज़िंदाँ निकला इतना नज़दीक मिरे तू भी कभी आ न सका जितना नज़दीक मिरे ये ग़म-ए-दौराँ निकला उन की महफ़िल से मैं ले आया तमन्ना उन की लोग समझे थे कि मैं बे-सर-ओ-सामाँ निकला रुक के इक अश्क ने क्या क्या न जलाया हम को दिल का सूरज भी चराग़-ए-तह-ए-दामाँ निकला हम ने देखा तो कोई इश्क़ का तालिब ही न था हम ने पूछा तो हर इक साहब-ए-ईमाँ निकला जब भी मालूम किया अपनी तबाही का सबब अपने हाथों में ख़ुद अपना ही गरेबाँ निकला ख़ुद-नुमाई भी अजब ज़ुल्म है 'नूरी' मुझ पर हाए वो वक़्त कि मैं ख़ुद से गुरेज़ाँ निकला