अब धूप अपने शहर की यूँ पीली हो गई पी पी के जिस को सारी फ़ज़ा कड़वी हो गई क्यों लोग चूसने लगे लफ़्ज़ों की उँगलियाँ तहरीर उस के हाथ की क्या मीठी हो गई शीशा नहीं थी शीशे की मानिंद थी जनाब एक टीस ही से सोच मिरी छलनी हो गई बादल से छूटी जब भी पटाख़ों की फुलझड़ी आकाश की फ़ज़ाओं में दीवाली हो गई चुप-चाप फ़ासलों की सियह गर्द क्या जमी चादर हमारे क़ुर्ब की फिर मैली हो गई हंगामा-ए-हयात की गर्मी समेट लो तन्हाइयों की गोद बहुत गीली हो गई