अब दिल में तेरे तीर का पैकाँ नहीं रहा क्यूँकर जिऊँ कि ज़ीस्त का सामाँ नहीं रहा गर्दूं की सम्त देख के रुख़्सत हुआ मरीज़ जब कोई उस के हाल का पुरसाँ नहीं रहा तारों ने कर दिया तिरी वहशत का राज़ फ़ाश ऐ रात तेरा हुस्न भी पिन्हाँ नहीं रहा मुझ पर तो तेरी आँख ने फिर कर ग़ज़ब किया मैं लुत्फ़-गीर-ए-गर्दिश-ए-दौराँ नहीं रहा फ़स्ल-ए-बहार की मिरी वहशत ने दी ख़बर अब दिल सँभालना मुझे आसाँ नहीं रहा ऐ यास तू ने आ के सहारा दिया मुझे जब कोई मेरे हाल का पुरसाँ नहीं रहा पिछले पहर शिकस्त की आवाज़ आई है टूटा है दिल कि ज़ब्त का इम्काँ नहीं रहा अब दिल में तेरे तीर के पैकाँ की याद है गो दिल में तेरे तीर का पैकाँ नहीं रहा हँसते हैं फूल ज़ख़्म पे दुश्मन है बाग़बाँ गुलशन में जी बहलने का सामाँ नहीं रहा जो दर्द तू ने जिस को दिया वाह रे असर उस दर्द का जहान में दरमाँ नहीं रहा वहशत भरी निगाह ने वीरान कर दिया अब क्या करूँ वो रंग-ए-गुलिस्ताँ नहीं रहा हसरत ने बे-कसी में कफ़न बन के ढक लिया अब लाशा मुझ ग़रीब का उर्यां नहीं रहा 'अफ़सर' मुशायरों में है क्यों मेरी जुस्तुजू मैं तो मुशायरों में ग़ज़ल-ख़्वाँ नहीं रहा