अब दुआ का ज़ोर चलता ही नहीं हिज्र का आसेब टलता ही नहीं लाख बहलाएँ बहलता ही नहीं दिल किसी करवट सँभलता ही नहीं सर पे सूरज है खड़ा मुद्दत हुई दिन ये कैसा है कि ढलता ही नहीं आज़माई तो है उस ने हर अदा हुस्न का अब सेहर चलता ही नहीं ज़िंदगी लाई है अब किस मोड़ पर अब क़दम कोई सँभलता ही नहीं हर घड़ी एहसास का तूफ़ान है दिल का ये आलम बदलता ही नहीं ख़ून जब तक रो न ले चश्म-ए-उफ़ुक़ सुब्ह-दम सूरज निकलता ही नहीं वक़्त ही के मातहत सब काम हैं वो जो कह दे फिर वो टलता ही नहीं शहर-ए-दिल तारीक है 'शारिक़' बहुत दीप अरमानों का जलता ही नहीं