याद के बे-रंग ज़ख़्मों को लहू मिल जाएगा दर्द का मौसम तो आने दो चमन खिल जाएगा आरज़ूओं के सफ़र की इंतिहा होती नहीं हर नई मंज़िल पे इक रस्ता नया मिल जाएगा रहगुज़ार-ए-शौक़ में दिल के तक़ाज़े कुछ भी हों कारवान-ए-ज़िंदगी मंज़िल-ब-मंज़िल जाएगा दिल सुलगता है तो दामन तक पहुँच जाती है आँच जब कभी तूफ़ाँ उठेगा सू-ए-साहिल जाएगा जिस दयार-ए-शौक़ का था आसरा वो मिट गया अब कहाँ ले कर मुझे ऐ जज़्बा-ए-दिल जाएगा तेरा कूचा हो कि मक़्तल हम को इस की फ़िक्र क्या हम उसी जानिब चलेंगे जिस तरफ़ दिल जाएगा एहतिमाम-ए-रक़्स-ए-दीवाना तो है पर सोचिए ख़्वाब-गाह-ए-नाज़ तक शोर-ए-सलासिल जाएगा हो रही है बज़्म में 'शारिक़' मसीहाई की बात ज़ख़्म भी भर जाएँगे और चाक भी सिल जाएगा