अब ग़रज़ मय से न मीना से न पैमाने से साक़िया हो गई नफ़रत तिरे मयख़ाने से दिल को है इश्क़ में पहले ही से उलझन काफ़िर और उलझे न तिरी ज़ुल्फ़ के सुलझाने से मेरा ईमान गया दिल भी गया जाँ भी गई ये सब आफ़त हुई उस आँख के लड़ जाने से रंज-ए-हिज्राँ ग़म-ए-फ़ुर्क़त अलम-ए-वस्ल-ए-अदू दम के हैं साथ मिरे जाएँगे दम जाने से नासेहा मैं भी कुछ ऐसा नहीं नादान कि बस छोड़ दूँ राह-ए-मोहब्बत तिरे बहकाने से साथ जाती दिल-ए-महज़ूँ के जो ये जान-ए-हज़ीं छूट जाता मैं शब-ओ-रोज़ के ग़म खाने से 'लुत्फ' किस तरह करे फ़िक्र-ए-विसाल-ए-जानाँ एक दम की नहीं फ़ुर्सत उसे ग़म खाने की