अब हमें तेरी तमन्ना नहीं है आँख को ज़ौक़-ए-तमाशा नहीं है जाने क्यूँ ढूँड रहे हैं हम तुम वो जो तक़दीर में लिक्खा नहीं है यूँ सर-ए-राहगुज़र बैठे हैं जैसे हम को कहीं जाना नहीं है फिर ये क्यों ख़ाक सी उड़ती है यहाँ दिल के अंदर कोई सहरा नहीं है शह्र वालो कभी उस को भी पढ़ो वो जो दीवार पे लिक्खा नहीं है उस को कमतर न समझना लोगो वो जिसे ख़्वाहिश-ए-दुनिया नहीं है हम को है क़ुर्ब-ए-मयस्सर का नशा हम को अंदेशा-ए-फ़र्दा नहीं है ये गुज़रता हुआ इक साया-ए-वक़्त क़ातिल-ए-उम्र है लम्हा नहीं है तह में रिश्तों की उतर कर देखो कौन इस दह्र में तन्हा नहीं है हिज्र का तुझ को है शिकवा तू ने मा'नी-ए-इश्क़ को समझा नहीं है गुम हुए कितने ही बे-नाम शहीद जिन का तारीख़ में चर्चा नहीं है तू है बेगाना तो क्या तुझ से गिला कोई दुनिया में किसी का नहीं है कर गए ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ से हिजरत पेड़ पर कोई परिंदा नहीं है ज़ीस्त में हम ने बचा कर कुछ वक़्त कभी अपने लिए रक्खा नहीं है हम हैं उस अह्द में ज़िंदा जिस का जिस्म ही जिस्म है चेहरा नहीं है तुम न होगे तो जिएँगे कैसे अभी इस बारे में सोचा नहीं है कैसी महफ़िल ये सजी है 'नाज़िश' कोई भी मेरा शनासा नहीं है