अजब तीर-ए-निगह में कुछ असर है न बर में दिल न सीने में जिगर है मआल-ए-आशिक़ी क्या पूछते हो जिगर के पार हर तीर-ए-नज़र है वो जैसी सुब्ह वैसी ही शब-ए-हिज्र ग़ज़ब की रात आफ़त की सहर है क़फ़स छोड़ा अजब सूरत से हम ने न बाज़ू है न गर्दन है न सर है तुम्हें क्या हम पे जो गुज़री सो गुज़री हिसाब ऐ जाँ हमारा हश्र पर है लगी लौ शम्अ-साँ इक शो'ला-रू की बला से सर कटे अब किस को डर है ग़रज़ मुतलक़ नहीं मुझ को किसी से 'नसीम' अपनी ख़ुदा ही पर नज़र है