अब कौन सी मता-ए-सफ़र दिल के पास है इक रौशनी-ए-सुब्ह थी वो भी उदास है इक एक करके फ़ाश हुए जा रहे हैं राज़ शायद ये काएनात क़रीन-ए-क़यास है समझा गई ये तलख़ी-ए-पैहम फ़िराक़ की इक मुज़्दा-ए-विसाल में कितनी मिठास है हर चीज़ आ रही है नज़र अपने रूप में उतरा हुआ फ़रेब-ए-नज़र का लिबास है इक गर्दिश-ए-दवाम में रोज़ अज़ल से है वो चश्म-ए-बा-ख़बर कि जो मर्दुम-शनास है फ़ितरत कहाँ थी अपनी 'तमन्नाई' शबनमी लेकिन किसी की शोला-निगाही का पास है