अब के सहरा में अजब बारिश की अर्ज़ानी हुई फ़स्ल-ए-इम्काँ को नुमू करने में आसानी हुई प्यास ने आब-ए-रवाँ को कर दिया मौज-ए-सराब ये तमाशा देख कर दरिया को हैरानी हुई सर से सारे ख़्वान ख़ुशबू के बिखर कर रह गए ख़ाक-ए-ख़ेमा तक हवा पहुँची तो दीवानी हुई दूर तक उड़ने लगी गर्द-ए-सदा ज़ंजीर की किस क़दर दीवार-ए-ज़िंदाँ को पशेमानी हुई तुम ही सदियों से ये नहरें बंद करते आए हो मुझ को लगती है तुम्हारी शक्ल पहचानी हुई