फ़ुग़ाँ से तर्क-ए-फ़ुग़ाँ तक हज़ार तिश्ना-लबी है सुकूत भी तो इक अंदाज़-ए-मुद्दआ'-तलबी है बहुत दिनों में हुआ अहल-ए-आरज़ू को मयस्सर वो क़ुर्ब-ए-ख़ास जहाँ तेरी याद बे-अदबी है ख़याल-ए-तर्क-ए-तअल्लुक़ जुनून-ए-क़त-ए-मरासिम तमाम सई-ए-तलब है तमाम तिश्ना-लबी है सुकूत-ए-शो'ला-ए-गुल है कि तेरा पैकर-ए-रंगीं वो आँच आती है जैसे बदन में आग दबी है उसी के फ़ैज़ से आशोब-ए-आगही है गवारा निगाह-ए-नाज़ है या मौज-ए-बादा-ए-उनबी है न जाने किस तरह तय होगा तिश्नगान-ए-करम से वो मरहला कि जहाँ अर्ज़-ए-हाल बे-अदबी है फ़ज़ा तो नग़्मा-ए-गुल से भी चौंक उठी है लेकिन तिरी शगुफ़्ता-लबी फिर वही शगुफ़्ता-लबी है