अब कोई अश्क भी आँखों के समुंदर में नहीं बे-हिसी वो है कि शायद किसी पत्थर में नहीं मैं ने चेहरों पे जो देखी वो अज़िय्यत-नाकी सर पे लटके हुए हालात के ख़ंजर में नहीं आबदीदा ये हुआ कौन मिरी हालत पर ये फ़रिश्ता तो कोई ख़ाक के पैकर में नहीं तिश्ना-लब हूँ तो बुझाऊँगा किसी तरह से प्यास आम इंसान हूँ कोई आल-ए-पयम्बर में नहीं मस्लहत कितना बदल देती है इंसाँ का मिज़ाज घर से बाहर है जो हर शख़्स वो क्यों घर में नहीं कितने दिल टूट चुके कितने धनुष टूट चुके फ़ैसला क्या हो कि सीता ही स्वयंवर में नहीं