अब कोई प्यार महकता है न जलते हैं बदन आ गई वक़्त के चेहरे पे ख़यालों की थकन रात कुछ देर तिरे शहर में रुक जाती है और हो जाते हैं यादों के दरीचे रौशन जब भी हालात ने ज़ख़्मों को छुपाना चाहा चीख़ उट्ठे हैं उमीदों के फटे पैराहन ज़िंदगी आज भी कुछ सोच रही है जैसे हर उदासी को समझ कर तिरे माथे की शिकन यूँ नज़र आते हैं अब दूर से माज़ी के महल जैसे वीराने में तारीक-ओ-शिकस्ता मदफ़न